surah bakrah ayat 21 tarjuma aur tafseer in Hindi

सूरह बक़राह आयत 21 तर्जुमा और तफ़सीर हिन्दी में surah bakrah ayat 21 tarjuma aur tafseer in Hindi

सूरह बकराह आयत 21 surah No.2 Ayat No.21

surah No.2 Ayat No.21

surah Bakrah Ayat No.21

सूरह बकराह आयत 21

۞ يَـٰٓأَيُّهَا ٱلنَّاسُ ٱعْبُدُوا۟ رَبَّكُمُ ٱلَّذِى خَلَقَكُمْ وَٱلَّذِينَ مِن قَبْلِكُمْ لَعَلَّكُمْ تَتَّقُونَ ٢١

तर्जुमा : ऐ लोगो, अपने रब की इबादत करो जिसने तुम्हें और तुमसे अगलों को पैदा किया, ये उम्मीद करते हुए कि तुम्हें परहेज़गारी मिले।

तफ़्सीर

یٰۤاَیُّهَا النَّاسُ

ऐ लोगो !

सूरह बक़रह के शुरू में बताया गया कि ये किताब मुत्तक़ीन की हिदायत के लिए नाज़िल हुई, फिर मुत्तक़ीन के औसाफ़ ज़िक्र फ़रमाए, उसके बाद इससे मुन्हरिफ़ होने वाले फ़िरक़ों का और उनके अहवाल का ज़िक्र फ़रमाया, ताकि सआदतमंद इंसान हिदायत और तक़वा की तरफ़ राग़िब हो और नाफ़रमानी और बग़ावत से बचे।

अब तक़वा हासिल करने का तरीक़ा बताया जा रहा है और वो तरीक़ा इबादत और इताअत-ए-इलाही है। "या अय्युहन्नास" के ज़रिए तमाम इंसानों से ख़िताब है और इस बात का इशारा है कि इंसानी शराफ़त इसी में है कि आदमी तक़वा हासिल करे और अल्लाह तआला का बंदा बने।

सूरत के शुरू में बताया गया कि यह किताब अल्लाह से डरने वालों की हिदायत के लिये उतारी गई है, फिर डरने पालों की विशेषताओं का ज़िक्र फ़रमाया, इसके बाद इससे मुंह फेरने वाले समुदायों का और उनके हालात का ज़िक्र फरमाया कि फ़रमाँबरदार और किस्मत वाले इन्सान हिदायत और तकवा की तरफ रागिब हों और नाफ़रमानी व बगावत से बचें ।

अब तकवा हासिल करने का तरीक्रा बताया जा रहा है. "ऐ लोगो" का खिताब (सम्बोधन) अकसर मक्के वालों को और "ऐ ईमान वालो" का सम्बोधन मदीने वालों को होता है. मगर यहाँ यह सम्बोधन ईमान वालों और काफ़िर सब को आम है. इसमें इशारा है कि इन्सानी शराफ़त इसी में है कि आदमी अल्लाह से डरे यानी तकवा हासिल करे और इबादत में लगा रहे. ।

इबादत की तअरीफ:

इबादत उस इन्तेहाई तअज़ीम का नाम है जो बंदा अपनी अब्दियत यानी बंदा होने और मअबूद की उलूहियत यानी मअबूद होने के अक़ीदा और एतिराफ़ के साथ बजालाए। यहाँ इबादत तौहीद और इसके अलावा अपनी तमाम क़िस्मों को शामिल है।

काफिरों को इबादत का हुक्म इस मअनी में है कि वो सब से बुनियादी इबादत यानी ईमान लाएं और इसके बाद दीगर आमाल बजा लाएं।

इबादत वह संस्कार (बंदगी) है जो बन्दा अपनी अब्दीयत और माबूद की उलूहियत (ख़ुदा होना) के एतिकाद और एतिराफ़ के साथ पूरे करे ।

यहाँ इबादत आम है अर्थात पूजा पाठ की सारी विधियों, तमाम उसूल और तरीकों को समाए हुए है. काफ़िर इबादत के मामूर (हुक्म किये गए हैं जिस तरह बेवजू होना नमाज़ के फर्ज़ होने को नहीं रोकता उसी तरह काफ़िर होना इबादत के वाजिब होने को मना नहीं करता और जैसे बेवजू व्यक्ति पर नमाज़ की अनिवार्यता बदन की पाकी को ज़रूरी बनाती है ऐसे ही काफ़िर पर इबादत के वाजिब होने से कुफ़ का छोड़ना अनिवार्य ठहरता है.

لَعَلَّكُمْ تَتَّقُوْنَ

ताकि तुम्हें परहेज़गारी मिले।

इससे मालूम हुआ कि इबादत का फायदा आबिद ही को मिलता है जबकि अल्लाह तआला इससे पाक है कि उसको इबादत या और किसी चीज़ से फायदा हासिल हो।

"ऐ लोगों ! अपने रब की इबादत करो जिसने तुम्हें और तुमसे पहले के लोगों को पैदा किया, ताकि तुम तकवा इख्तियार करो।"

अल्लाह तआला इंसानों से फरमाता है कि अपने पैदा करने वाले की बंदगी करो। यह इबादत सिर्फ नमाज और रोजे तक सीमित नहीं, बल्कि जिंदगी के हर पहलू में अल्लाह के हुक्म को मानने का नाम है। ताकि इंसानी जिंदगी में तकवा और ख़ौफ़-ए-ख़ुदा पैदा हो।

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